तरकश से मिली आज़ादी का हश्र मुकम्मल कहाँ होता है? वही होता है जो मंजूर-ए-खुदा होता है । अब तो इस ज़िद को छोड़ दे ऐ बन्दे की मज़हब तेरा मुझसे जुदा होता है । हमने तो कभी बोला न था तुम्हे इस चमन के टुकड़े करने को तुम्ही केहते थे की अल्लाह की मर्ज़ी पे एक मुल्क खड़ा होता है| अल्लाह ने तो अब मुल्क के मेरे टुकड़े को भी तर्रक्की से नवाज़ा है, अब बता कैसे तेरे टुकड़े को पाकीज़ा मैं मानू समझा दे मुझे काहाँ से रब तेरा और मेरा जुदा होता है? तरकश से मिली आज़ादी का हश्र मुकम्मल कहाँ होता है? वही होता है जो मंजूर-ए-खुदा होता है । My reaction to this news item from yesterday: